आज उन्हीं पद्चिन्हों पर मैं भी चली
जहाँ अक्सर तुम्हारा आना जाना लगा
रहता था यू ही बेवजह :-))
कि अचानक से मेरे पैर में कुछ चुभा
और उसी चुभन के साथ मेरी आँखें
भी बरस पड़ी!!!!!!!!!!१
हाथ में उठाकर देखा तो कांच बिखरे पड़े थे
(अनायास ही मुझे वो लाइन्स याद आ गयी
जो कभी मैंने तुम्हें लिखी थी कि -
"आईना तो नहीं था ख्वाब मेरा ,
जो कि टूटकर आँखों में चुभ रहा है :-")
पर आज यकीं भी हो गया कि ,,,,,,
आईना ही तो था
बिल्कुल नहीं बदले हो कितनी बार समझाया था कि
कांच की चीजों को जरा सम्भाल कर रखा करो
(handle with care yar)
पता है ना कि जब टूट जाए तो दर्द बहुत होता है
पर नहीं सहेज सके
तोड़ दिया ना
बिना यह सोचे कि इसके टूटने से
बिना कोई आवाज किये भी मेरे
अंदर का न जाने क्या-२ टूट जायेगा
और शायद "मैं "भी :-))
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